दिनोनदिन दोनों में एक-दूसरे से मिलने की उत्सुकता बढती जा रही थी मगर वेलेंटायन दिवस के पास आने से जैसे राजन में इस भाव को तीव्र बना दिया और अपने प्रेमी होने का हक वह रोजी से मांग बैठा, असली मुलाकात की।
अगर साथ तो चाहिए
-कुलीना कुमारी
दो लेखक दोस्त थे। एक-दूसरे को पढ़ते और प्रतिक्रिया देने की आदत के साथ कब प्रगाढता बढ़ती गई, पता नहीं चला। मगर धीरे-धीरे दोनों ही अच्छे दोस्त हो गए। यद्यपि लेखन के लाइन में दोस्ती अच्छी नहीं मानी जाती क्योंकि सोचा जाता है कि कही अपने व्यावसायिक फायदे के लिए एक-दूसरे को बलि का बकरा ना बना बैठें। मगर दिल मानता भी कहां है, अगर कोई अच्छा लग जाए। शायद यही उन दोनों के साथ भी हुआ था। राजन जितना ही धीर गंभीर था, रोजी उतनी ही चंचल और खुशमिजाज। बिना कुछ सोचे समझे कुछ भी कह देने वाली मगर राजन उसके हर वार को झेलने के लिए तैयार रहता क्योंकि उसे रोजी से बहुत लगाव था। शायद प्यार, बहुत प्यार।
हां प्यार रोजी को भी राजन से था क्योंकि लंबे समय में उसे एहसास हो चला था कि जो अपनापन, अधिकार और कर्तव्यनिष्ठा उसे राजन में बातों के माध्यम से पता चला था, वैसा कही भी तो नहीं देखा। जब भी उसकी लेखनी में गुस्सा, आक्रोश या दर्द दिखता, राजन को जैसे एहसास हो जाता कि रोजी परेशान। वह उसे अधिकार से पूछ बैठता कि क्या हुआ, क्यों दुखी हैं. और उससे खूब अपनापन से पेश आता। राजन के ये गुण रोजी को राजन के प्रति समर्पण को तैयार कर देते। दोनांे में जब जिसे फुरसत मिलती, वे एक दूसरे को फोन कर लेते या फिर सोशल साइट के जरिये बातचीत। दिनोनदिन दोनों में एक-दूसरे से मिलने की उत्सुकता बढती जा रही थी मगर वेलेंटायन दिवस के पास आने से जैसे राजन में इस भाव को तीव्र बना दिया और अपने प्रेमी होने का हक वह रोजी से मांग बैठा, असली मुलाकात की।
रोजी भी कब से मन ही मन राजन से मिलना चाहती थी मगर जैसे मिलने का खास बहाना न मिला था। यह वजह, राजन का अपनापन और सच में छूकर महसूस करने की चाहत जैसे उसके मन की तरंगों को भी झकझोर दिया और उसके लब स्वतः दे बैठा सहमति मिलने की।
शायद राजन इस सुखद पल हेतु कब से प्रतीक्षारत था और जल्दी ही रोजी के शहर में कार्यालय से कुछ दिन की छुट्टी लेकर आ गया। यद्यपि रोजी भी मन ही मन डरती थी मगर बहुत प्यार था उसे राजन से और अब तो वह आ भी गया था उसी से मिलने उसके शहर तो अपने घरवालों से काम का कोई बहाना बनाकर वह उसके ठहरने के स्थान पर मिलने जा रही थी।
धड़कनें रोजी की तेज थी, दूर से बात करना व पास से फर्क तो होता ही है। वह सोच रही थी कि पता नहीं असली में राजन कैसा होगा? वह अच्छा भी हुआ तो पता नहीं, वह उसे कैसी लगेगी? ऐसे अनेक ख्याल रास्ते भर उसके मन पर छाये रहे।
समय बितते कहां देर लगती है...नियत स्थान पे पहुंचने पर जैसे ही वह दरवाजा खटखटायी, उसकी नजरें ठहर सी गयी। दरवाजा राजन ने खोला था, उसकी फिट बॉडी, शांत चेहरा मगर आंखों की विशेष चमक राजन के गंभीर स्वभाव और उसके आत्मविश्वास को व्यक्त कर रहा था। राजन रोजी को देखकर मुस्कुराया और बोला, ‘‘आओ भी।’’
‘‘हां हां बिल्कुल और इसी के साथ वह कमरे के अंदर प्रवेश कर गयी। अब दोनों ही अकेले थे। अंदर एक डबल बेड व उसी से अटैच सोफा लगा हुआ था, वह सोफा पर बैठ गयी।
तब तक राजन उसके लिए पानी व टी केटली का उपयोग कर चाय बना लाया। फिर सामने की चेयर पर बैठता हुआ पूछा, ‘‘ चाय पियो, कुछ और लोगी क्या? वैसे अब बताओ, कैसी हो?’’
‘‘ नहीं, फिलहाल के लिए चाय काफी! ’’
‘‘राजन की सहजता व आतिथ्य सत्कार की भावना देख वह खुश हुई व और सहज होते हुए बोली, ‘‘ जहां तक मेरे हाल की बात तो मस्त, दिख तो रहा है ना आपको?
‘‘ओह सच!’’
इस अंदाज पर राजन ने रोजी को अच्छे से देखना शुरू किया। रोजी की मुस्कुराहट व इशारापरक बोल्ड बातें उसके आधुनिक होने का भान कराती हुई लगी मगर भारतीय परिधान उसके स्वभाव के विपरीत राजन को लगा। मगर आंखों की चंचलता व दुपट्टे के अंदर झांकते उसके यौवन रोजी के सुंदर और आकर्षक होने का एहसास करा रहा था। फिर राजन के लिए रोजी बहुत खास थी और इस पल को वह जीवंत बना लेना चाहता था। वह रोजी को और कुरेदने के दृष्टिकोण से बोला, ‘‘ सच तुम सच में ही मस्त लग रही हो, इतनी कि कोई भी देखे तो वह भी मस्त हो जाय। अब यह तो बताओ कि मैं तुम्हें कैसा लग रहा हूं?’’ राजन जैसे अपने प्रति रोजी का नजरिया पढना चाहता था। शायद सामने से उसके चाहत का पैमाना भी।
यद्यपि नारी जनित लज्जा रोजी में कायम थी, मगर इस प्रश्न ने उस पर्दे को हटा दिया और वह राजन की आंखों में आंखें डालकर बोली, ‘‘देखने में तो आप बिल्कुल पुराने जमाने के मरद जैसे लगते हैं, पर दोस्ती की हैं आपसे तो कोई बात नहीं, इसी से काम चला लूंगी और यह कहते हुए वह खिलखिलाकर हंस उठी। रोजी का खुलापन राजन की मर्दानगी जगाने के लिए काफी था। वह हंसी में संग देते हुए बोला, ‘‘हां हां क्यों नहीं, मैंने इस शहर की सबसे तेज लड़की को जो पसन्द किया है, मैं भी झेल लूंगा।’’ यह कहते हुए वह रोजी के पास आ उसका हाथ पकड़ बेड पर बैठा लिया व बोला, ‘‘अब काम चलाओ ना!’’
राजन का स्पर्श रोजी में अजब सा एहसास जगाने लगा। वह चाहने लगी कि राजन और आगे बढे। मगर इसके लिए उकसाना जरूरी था तो बिना खुलकर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बोली, ‘‘सुनिए जी, खाली हाथ पकड़ने से कुछ होता भी नहीं मगर मेरे मन को लगेगा कि मैं मर्द के साथ थी, इससे अच्छा थोड़ा दूर ही बैठिये।’’
‘‘अच्छा तो किससे होता है, कहो तो वही करके देख लूं ?’’ रोजी की बात से राजन में जोश आ गया और रोजी को आगे बढकर चूमते हुए बोला।
रोजी में रोमांच बढ़ता जा रहा था मगर वह जैसे राजन को चेक करना चाहती थी, जैसे उसकी बुद्धि की तीक्ष्णता की जांच या फिर वह धीरे-धीरे बढ़ना चाहती हो और बोली, ‘‘नहीं मुझे ‘वो’ नहीं करना है। वैसे भी मर्द में इतनी क्षमता होती कहां है कि ‘पूरा’ कर सके तो उससे अच्छा करना ही नहीं चाहिए।’’
राजन को लगा जैसे रोजी ने उसकी मर्दानगी को ललकार दी हो, बोला-‘‘मैं तो जब स्टार्ट हो जाऊंगा तब पूरा करके ही रहूंगा...समझ लो..कोई विघ्न बाधा नहीं। मतलब सब तुरंत सहज और मजेदार!’’
‘‘अच्छा, मैं यही तो चाहती हूं कि मेरा मर्द जब करे, अच्छे से करे। इसमें कमी तो गुस्सा बहुत आता है।’’
‘‘आदमी की बंदूक तन जाये...जब तक फाइरिंग नहीं होगी, टाइट रहेगी ही।’’ राजन ने अपनी बात को दुहराया।
‘‘अच्छा तो खुद पर इतना भरोसा है‘‘ रोजी बोली।
‘‘मेरे तरफ से तो कमी नहीं होगी। बस मौका दो तो मन भर भर करके और बातों के साथ-साथ राजन रोजी को खुद से छिटकने नहीं दिया था और पुरुषोचित रंग उस पर रगड़ता जा रहा था...
इस पहल से धीरे-धीरे रोजी को मजा आ रहा था, वह बोलती जा रही थी, ‘‘एक सच बताऊं, रेप को लेकर!’’
‘‘हूं‘‘
‘‘महिला को छूना मगर ठीक से नहीं कर पाना, असली रेप तो वह होता है।’’ और इसी के साथ कब से आकुल राजन के लिए अपना समीज....... और..और..!
राजन अत्यधिक जोश में आते हुए बोला, ‘‘हां हां...100 प्रतिशत करेक्ट...तभी कहा जाता है कि लाला बनियो के लिए होता है...!’’
‘‘मतलब’’ जैसे रोजी इस इशारे को समझ न पायी।
‘‘मतलब यह कि सेठानी का मन जोर से करे, सेठजी दूकान से ढले लिपटे...जरा से लगाये...और हो गया सेठानी के...ऐसे तो नहीं तब तो सेठानी ड्रायवर और दूकान पर काम वाला हट्टा-कट्टा को पकडेंगी ही,’’ राजन ने कहा।
‘‘हां हां क्यों नहीं, अब समझी। ’’ रोजी राजन के स्पर्श को जहां-तहां महसूस करते हुए बोली।
‘‘और बताओ, वैसे मुझे पता कि ठीक और तवियत से करना ही असली सेक्स होता है।’’ राजन रोजी के जिस्म संग खेलता हुआ बोला।
‘‘जी कि अपने भोजन के लिए कुछ भी करना अपराध तो नहीं...जिएंगे तो ही सेठानी क्या, कोई भी पाप पुण्य के बारे में सोच पाएंगे...पेट और जिस्म तो जीवन आधार...दोनों की पूर्ति के बाद कुछ भी ठीक।’’ इस बात पर राजन अत्यधिक खुश व उŸोजित हो रोजी को ‘नीचे’ कुछ अधिक तेज चूम लिया। इस अंदाज पर रोजी जैसे जोश से पागल सी होने लगी। ऐसा ही कुछ हाल राजन का भी हो रहा था और बोला, ‘‘सच! पेट से आगे ‘नीचे’ की भूख ज्यादा मतवाली और प्रशन्नता देने वाली होती है, बहुत मजा आ रहा।’’
‘‘हां मुझे भी और तभी इसके लिए कुछ भी अपराध नहंीं!’’
‘‘बिल्कुल कि जब दोनों मेल-फिमेल ऐसे समझ रखते हैं तो कोई अपराध नहीं तो अब कर लूं ना’’ राजन अत्यधिक उŸोजित हो चला था और अब आगे की जैसे सहमति मांग रहा था।
रोजी समझ तो रही थी मगर जैसे उसका डर पूरा खत्म नहीं हुआ था, बोली, ‘‘ अब बस कि आप ही इजाजत दीजिए तो चलूं मैं।-यह कहते हुए वह उठने की कोशिश की मगर राजन उसको ना छोड़ा। बोला-ऐसे कैसे जाएगी महरानी, भूख जगाकर, अपना जलवा दिखाकर बिना खिलाए तो ना जाओ।’’
‘‘मगर यह तो पाप होगा‘‘
"पहले भूख मिटा ले, फिर पाप-पुण्य के बारे में सोचेंगे। और अभी तो कह रही थी कि अपने भोजन के लिए कुछ भी करना पाप नहीं तो गुरूज्ञान देकर बिना प्रयोग में लाए जाने नहीं दूंगा।’’ और... राजन बिना और इंतजार किए अपने को उससे .....!
रोजी को मन ही मन न जाने कब से इस पल का इंतजार था और उसने आंखें बंदकर इसकी मौन सहमति देदी। उसे पता था कि एक बार अगर यह जुड़ाव हो जाय तो बिना पुरुष की थकान के अलग होना संभव भी तो नहीं। अब वे दो जिस्म मगर एक जान हो चले थे। राजन को यहीं तो चाहिए था, वह रोजी को भोगना चाहता था। रोजी भी उसे ग्रहण करना चाहती थी मगर वह इस पल को पूर्णता तक महसूस करना चाहती थी। दोनों कुछ पल तक चुप थे। राजन धीरे-धीरे उसे जीवंतता का अनुभव कराता हुआ पूछा, ‘‘बोलो, ठीक है, कुछ कहो भी!‘‘ रोजी इसपर खुलकर साथ देते हुए बोली, ‘‘बहुत अच्छा लग रहा है और चाह रहा दिल कि यह पल अनंत काल तक के लिए हो।’’
‘‘तो लो ना मजा!’’
‘‘हां’’
‘‘ सुनो ! जब पल ये मजेदार, तभी तो सारे इस प्यार के दिवाने होते हैं , तुम मना क्यों कर रही थी?’’
‘‘अगर साथ तो मुझे भी चाहिए। मगर उतना भरोसा नहीं था कि आप उतना दूर चल पाएंगे तो..।’’
‘‘मुझे दुख कि तुम्हारा सेक्स पार्टनर तुम्हें तुम्हारी इच्छा तक संतुष्ट नहीं कर पाता मगर मैं अलग। वैसे मैं कैसा, तुम पूरा चखो तो..!’’ और इसी के साथ वह अपना अलग प्रभाव रोजी पर छोड़ता जा रहा था।
‘‘तुम विश्वास रखो, जब तक तुम्हें भोजन नहीं मिलेगा, मैं अपनी मेहनत जारी रखूंगा।’’ और फिर तो प्यार का खेल जमकर शुरू हो गया। जब खेल खतम हुआ तो राजन थक चुका था मगर रोजी के होंठों पर मुस्कान थी और राजन को अपने थकान पर दुख नहीं, संतोष हो रहा था।
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