परिचय तब प्रगाढता का शक्ल लेने लगता है जब दोनों या उसमें से कोई भी एक किसी न किसी रूप में अपनापन अथवा अपना बड़प्पन ही प्रदर्शित करने लगते हैं । मनी़ष और वीणा की मुलाकात उनकी कॉमन फ्रेंड के माध्यम से एक कार्यक्रम में हुई थी और आदतन एक-दूसरे का नम्बर ले लिया।
कुछ दिन के बाद वीणा किसी काम से उस क्षेत्र में गयी जहां मनीष का ऑफिस था। वह पुराना परिचय को ताजा करने मनीष की आफिस पहुँच गयी। शहर के मेन इलाके में उसका आफिस था और उसे वहां जाकर पता चला कि वह अपने कंपनी का बॉस था। थोड़ा इंतजार के बाद मनीष वीणा को अपने कमरे में बुलाया, उस हेतु चाय-बिस्कुट के साथ मिठाई भी मंगवाया व उससे अपनापन से बात करने लगा। यह सब देख वीणा खुश हुई और बोल उठी, ‘‘जी धन्यवाद सर हमें याद रखने के लिए।’’
मनीष जवाब दिया, ‘‘ स्वस्ति अस्तु ।’’
मनीष का मुस्कुराता चेहरा और अपनापनपूर्ण व्यवहार से वीणा प्रभावित हो गयी मगर पेशे से सामाजिक कार्यकर्त्ता किंतु स्वभाव से खुले व मजाकिया सोच की वजह से उसे मजाक सूझ गया और बोल उठी,
‘‘गाली ना दीजिए अगर प्यार नहीं कर सकते तो..’’
सिर्फ दूसरी मुलाकात मगर वीणा का ऐसा जवाब मनीष अचकचा सा गया और सम्हलते हुए बोला, ‘‘अरे इस में गाली कहाँ है’’
वीणा मनीष की घबराहट समझ गयी और उसका खिल्ली उड़ाते हुए बोली, ‘‘जो भाषा समझ में ना आए, उसे क्या समझूं, पता नहीं, उसमें आपने क्या बोला?’’
‘‘अच्छा तो यह बात’’, उसने जैसे राहत की सांस ली, फिर बोला, ‘‘इसका मतलब यह कि सब मंगल हो, आप खुश रहें और क्या?
वीणा इस बात पर खूब जोर से खिलखिलाई और फिर मुस्कुराते हुए बोली, ‘‘जी धन्यवाद, वैसे मैंने मजाक किया था, बुरा लगा हो तो सॉरी।’’
‘‘अरे नहीं वीणा!’’ मनीष के मुंह से निकल उठा जैसे वीणा का सॉरी बोलना उसे और विनम्र बना दिया। हो सकता है इसलिए भी कि वीणा न केवल बुद्धिमान थी बल्कि सुंदर भी और शायद मर्द सुंदर महिला से हारने में भी खुशी का अनुभव करता है।
मगर वीणा को जैसे मर्दाें को मूर्ख बनाने में मजा आता है, अभी-अभी सॉरी बोली थी मगर फिर उसे मजाक सूझ गया और पुनः बोल उठी, ‘‘तो हां क्या है?’’
मनीष पुनः कन्फ्यूज हो गया और पूछ बैठा, ‘‘मतलब’’
‘‘आपने ही तो बोला था, ‘अरे नहीं’ तो हां के बारे में पूछा, चूंकि आपने बोला है तो आप ही को हां का मतलब पता होगा’’
मनीष फिर प्रश्न में उलझ गया और बोला,‘‘किस बात की हाँ बोलूं?’’
‘‘इतनी गूढ बात मुझे कहाँ मालुम होगा? आप ही समझिये।’’ वीणा ने मासूमियत से जवाब दिया।
मनीष फिर जैसे कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘समझने की कोशिश करता हूँ
’’
वीणा फिर मजाक पर उतर आई और बोल उठी, ‘‘जी, आप बड़े, अब भी तो समझ जाइए’’
‘‘पर क्या’’ मनीष जैसे फिर से कन्फ्यूज होते हुए बोला, ‘‘मुझे नहीं पता’’
‘‘तो किसको पता होगा, आपके मन की बात हमें कहां मालुम होगा?’’
मगर इतनी देर वीणा को सुनते-सुनते जैसे मनीष समझने लगा कि यह मुझे बातों में फंसाकर बेवकूफ बना रही है तो इस बार वह वीणा को देखकर मुस्कुराया और उसकी आंखों में आंख डाल बोल उठा, ‘‘मेरी छोड़ो अपने मन की बात करो।’’
‘‘सच कहूं?’’
‘‘हा’’ं
‘‘आपको बुद्ध बनाना था या होश उड़ाना था, और कुछ नहीं।’’
‘‘अरे मुझे ऐसी गंभीर बाते समझ नहीं आती।’’
‘‘तो ही तो मजाक उड़ा पायी।’’
‘‘हो सकता है।’’ मनीष बोला
‘‘ पहली मुलाकात को याद करते हुए वीणा ने कोड किया कि उस दिन जरा-जरा सी बात पर आप बहुत हंस रहे थे तो फिर मैने हंसने-हंसाने वाली वजह पैदा कर दिया।’’
‘‘ओके, मैं हँसता ही रहता हूँ।’’
‘‘अच्छा जी मगर आपकी ये बात मुझे सच नहीं लगती है। जो प्रसन्न व्यक्ति, उनमें वो जोश व प्रसन्नता छलकती हुई दिखाई देती है, वैसा नहीं दिखता मुझे आपमें।’’
मनीष को यह बात जैसे अच्छी नहीं लगी, उसने बोला, ‘‘हो सकता है, क्योंकि हमारा जोश होश में रहता है।’’
मगर वीणा जवाब देने से नहीं चूकी, बोली, ‘‘वह जोश ही क्या जो होश के साथ आए। वैसे आप जिसमें खुश, वहीं कीजिए।’’
इस बातचीत के बाद वीणा चली गई मगर मनीष के मन में वीणा का खिलखिलाहट व तर्कशक्ति जैसे उसके मन पर ठहर गया। वीणा के मन में भी मजाक उड़ाते-उड़ाते जैसे अपनापन वाला भाव रह गया।
मगर वीणा खुले स्वभाव की थी और अपने में मस्त रहने वाली किंतु मनीष गंभीर प्रवृŸिा का था मगर वीणा से मिलने के बाद वह किसी के साथ खुलना चाहता था और धीरे-धीरे वह वीणा को याद करने लगा। दूसरी मुलाकात उसके लिए बहुत खास थी। वीणा ने उसे बुद्धू बनाया था मगर फिर उससे मिलना चाहता था। अबकी बार जैसे वह अपने आप को, अपनी मर्दानगी को व अपनी तीक्ष्णता को उसे साबित करना चाहता था, कुछ यूं कि वहीं नहीं, वीणा भी उसे याद रख सकें। वह मन ही मन उसका इंतजार करने लगा, उसके फोन आने का, स्वतः उसके मिलने आने का मगर कई दिन बित गये, वीणा नहीं आई और न उसका फोन आया। जब मनीष को नहीं रहा गया तो उसी ने वीणा को फोन किया और हाल समाचार पूछा। वीणा सामान्य सी लगी और मनीष को बेवकूफ बनाने की बातें उसे जैसे फिर याद आ गई। वह बोल उठी, ‘‘ क्यों जनाब, फिर से बूद्धू बनना है क्या?’’
इस पर मनीष खिलखिलाया और बोला, ‘‘ जब आप जैसी हसीना बेवकूफ बनाए तो भला कौन मना करें, वैसे महारानी, अबकी बार ऐसा नहीं होगा। मुझे आप जैसे ज्ञान की देवी से इससे पहले दर्शन नहीं हुआ था मगर अब हो चुका है। आप आइए, अबकी बार नहीं बना पाएंगी बेवकूफ।’’
‘‘सच’’
‘‘हां सच!’’ मनीष बोला।
वीणा थी तो अपनी दुनिया में मस्त और मनीष से मुलाकात जैसे भूल सी गई थी मगर उसका फोन आने से और आत्मविश्वास से बात करना उसे जैसे अच्छा लगा। वह मन ही मन सोचने लगी कि मर्द मर्द जैसे ही अच्छा लगता है। जो डरपोक वह नारी को पसंद नहीं आती। अच्छा हुआ कि मनीष में मेरी मुलाकात की वजह से ही सही, उसमें हिम्मत आई।
उस दिन तो नहीं मगर कुछ दिनों के बाद फिर वीणा को मनीष के एरिया में अपने किसी काम से जाने का मौका मिला और पुनः वह मनीष से मिलने चली गई।
इस बार मनीष ने उसे जरा भी इंतजार नहीं करवाया और सीधे ही अपने कमरे में भेज देने के लिए स्टाफ को बोल दिया था।
वीणा अपने अंदाज में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए पूछी, ‘‘और सब बढिया है ना?’’
‘‘हाँ अभी तक तो ठीक है’’ मनीष अपनी बेकरारी को जैसे छुपाते हुए बोला।
‘‘ अच्छा है! यहीं पल सच है जी। कल को किसने देखा?’’ वीणा ने जैसे दार्शनिक अंदाज में कहा
‘सच’
मगर मनीष के जवाब पर वीणा पुनः मजाक में आ गयी और बोल उठी, ‘‘अजमाना हो तो आजमा ले।’’
‘‘किसे’’
वीणा इस पर बोली, ‘‘मुझे नहीं, वक्त को।’’
मगर इस बार जैसे मनीष सावधान था और वीणा के मजाक का जवाब वह भी मजाक से देना चाहता था। उसने सोच लिया कि आज तो बेवकूफ नहीं बनूंगा और फिर वह उसी की बात को पकड़ते हुए बोला, ‘‘क्यों’’
‘‘पता नहीं’’
‘‘फिर’’
‘‘आपका मन हो तो..’’
‘‘ तो क्या, तुम्हंे आजमाने का’’
वीणा मनीष के इस जवाब पर जैसे शरमा गयी और बोली, ‘‘मुझे क्यों’’
मनीष जैसे तय कर लिया था कि वह अपनी बात व तर्क से इस बार जरूर उसे हरा देगा और पुनः विश्वास के साथ बोल उठा, ‘‘वक्त को मैं आजमा नहीं सकता, सो बची तुम।’’
नारी का यह स्वभाव कि जब कोई सुंदर या पसंदीदा पुरुष उससे प्यार से अथवा पुरुषत्वपूर्ण बात करने लगे तो स्वतः जैसे उसे कुछ होने लगता है और तब वह प्रतियोगी नहीं, शायद स्त्रीजनित भाव उसमें जागृति होने लगती है। वीणा का दिल जैसे धड़कने लगा मगर वह संयत होते हुए बोली, ‘‘मैं वस्तु थोड़े कि कोई मुझे आजमाए’’
मनीष को लगा कि जैसे कुछ ज्यादा हो गया। वह स्थिति को सहज करने की कोशिश करते हुए बोला, ‘‘अरे तुम्हारे विचारो को’’
मगर इस बार जब मनीष का सहज जवाब सुनी तो फिर जैसे वीणा सहज हो गयी और अपने मजाकिया अंदाज में बोल उठी, ‘‘वह तो परिवर्तनशील’’
इस जवाब पर मनीष पुनः चौक गया और बोला, ‘‘मतलब’’
वीणा फिर खिलखिलाकर हंसी और बोली, अभी आपके साथ, आपसे कोई और स्मार्ट दिखेगा तो उसके साथ।’’
इतना खुला विचार मगर सच्चाईपूर्ण अभिव्यक्ति उसे लगा कि सच में ही वह नारी का आधुनिक रूप देख रहा है। मगर वीणा की सुंदरता व उसकी जीवंतता इसके बावजूद भी उसे बहुत अच्छा लगा और उसके प्रति अपने मन में आकर्षण जैसे वह पाता रहा। वह बोला, ‘‘मगर मैं सूरत देख कर कुछ नहीं करता।’’
वीणा पुनः मनीष की बातों की खिल्ली उड़ाते हुए बोली, ‘‘हम महिला तो सूरत देखके पक्का कुछ नहीं करती क्योंकि मर्द की सूरत होती भी कहां? महिला तो मर्द में मर्दानगी देख कर दोस्ती करती है।’’ यह कहते-कहते उसे लगा कि शायद उसने कुछ ज्यादा कह दिया तो वह बोली, ‘‘थोड़ा ज्यादा हो गया शायद, सॉरी!’’
‘‘अच्छा, मेरी मर्दानगी आप ने कब देखी’’ मनीष पुरुषोचित अंदाज से बोला
इस बात पर वीणा जैसे मन ही मन घबराने लगी, उसे लगा कि किसी पुरुष को ललकारना नहीं चाहिए। क्या पता, क्या हो जाय। वह इस बात की गंभीरता को कम करने के उद्देश्य से बोली, ‘‘छोड़िये भी यह बहस, मैने महिला मन की सोच बतायी थी, बस। और यह कहते हुए वह कुर्सी से उठते हुए बोली, ‘‘ अब मुझे चलना चाहिए, बहुत देर हो गयी?’’
वीणा के इस अंदाज पर मनीष अपनी कुर्सी से उठा और अपने कमरे को लॉक करते हुए रेड लाइट जला दिया ताकि कोई और उसे डिस्टर्व नहीं करे। फिर वीणा का हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘‘ अजी इतनी जल्दी कैसे, जब प्रश्न मर्दानगी पर किया है तो एक नमुना तो देखते जाइए। और उसे चूमते हुए अपने बाहों में कस लिया और बॉस के लिए जो रेस्ट रूम होता है, कमरे के अंदर ही, उसे वहां पर ले आया।
वीणा को मनीष से यह उम्मीद नहीं थी पर वीणा को बिना नमुना दिखाए वह माना नहीं। मनीष अपनी पकड़ बढाता गया और वीणा उसकी मजबूती, स्पर्श व रोमांच में पिघलती गई। यद्यपि सामाजिक डर का हवाला दे वीणा ने चाहा कि वो सब न हो मगर मनीष ने यह कहते हुए इसे झटक दिया कि यह बात हमदोनों तक ही रहेगी। फिर वीणा को मनाते हुए और उसके कसे हुए शरीर व उसके यौवन को चूमते हुए बोला, तुम्हारी जैसी सुंदर स्त्री जिसकी दोस्त हो, और जो मर्दानगी को ललकारे, वह पुरुष पागल ही होगा जो उस पर अपनी मर्दानगी साबित करके ना दिखाए। प्लीज मत रोको, मुझे भी मजा लेने दो और तुम भी लेलो। मनीष का प्यार अनुग्रह व स्पर्श में वो जोश था कि वीणा मान गयी। फिर तो और..और प्यार और जिस्म का यह खेल चलता ही रहा जब तक वीणा ने बस नहीं कहा और मनीष की प्यास भी पूरी नहीं हुई। कितने दिनों से मनीष वीणा का इंतजार कर रहा था और अब जाकर उसका इंतजार जैसे फल गया था। बड़ी मिन्नतों के बाद मनीष ने उसे खुद से अलग किया। इस बार मनीष बुद्धू नहीं बना था, वीणा से जीत गया था और दोनों ही एक अजीब से जोश व रोमांच के बंधन से बंध गये थे। वीणा हारकर भी प्रसन्न थी क्योंकि हर महिला एक मजबूत मर्द का साथ चाहती है, उसका प्यार व संतुष्टि चाहती है और मनीष उसे अपनी मर्दानगी का एहसास करा दिया था, अपने प्रेमपूर्ण स्पर्श, जोश व मिठास मंे उसे सराबोर करके।
उसके कुछ देर बाद वह अपने घर के लिए निकल गई और रास्ते भर अपने शरीर पर मनीष द्वारा मिले जहां-तहां निशान व उससे मिले आनंद को याद कर वह सोचती रही थी, ‘‘मैं मनीष से यहीं तो चाहती थी कि उसमें पुरुषार्थ जगे। वह मुझे देखे, ढंडा न रहे और अपनी मर्दानगी दिखाए। आज उसने दिखा दिया। हां, है मर्द वह। बूद्धू नहीं वह। वैसे वो बुद्धू कैसे रह सकता है जिसे मैं चाहूं !
-कुलीना कुमारी, 28-10-2016
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