वातावरण के रंग के साथ हमारे तन-मन-आचरण का भी रंग बदलता रहता है। अभी वातावरण रोशनियों में लदी तो मन भी जुग्नुओं से लिपटा हुआ फील कर रहा है।
हां हो रहा है मन, खूब अच्छा-अच्छा करे, उन सब अंधकारों को बाहर कर देना चाहती हूं जो मन को डराता है, हमें खिलखिलाने नहीं देता। अपनी मुस्कान पुन: वापस पाना चाहती हूं।
बोल देना चाहती हूं वो सबकुछ जिसे मन में कब से बसा रखा था। नहीं छुपाना चाहती अपना चेहरा, न रहना चाहती परदे में, जमाने भर की खुशियां खुद आगे बढ आंचल में चुन लेना चाहती हूं।
अपने उन सपनों को फिर से जी लेना चाहती हूं जिसे अंधेरे के डर से कब से दबा रखा। हां पहुंच जाना चाहती हूं ऊंचाई की उस तराई पर जहां मेरी मंजिल, जीवन आनंद पड़ा है।
-कुलीना कुमारी, 28-10-2016




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