महिला अधिकार अभियान, अक्टूबर 2016, रचनाकार: नीति
मुझमें कौन है ये
यकीनन ये मैं तो नहीं,
नाचती है उठती गिरती
लहरों पर,
दौडती है
दूर रेत पर,
नंगे पाँव
खोल के बाँहे
उन्मुक्त।
महिला अधिकार अभियान’ के अक्टूबर 2016 अंक में प्रकाशित |
मुझमें कौन है ये?
बरसात से भरी
आंधियों में,
चली आती है
छत पर,
बूंदो की सरगम को
जैसे
धडकनों में भरती है,
संगीत नया गढती है
पानी में
वो पैरों की थाप
उल्लासित।
मुझमें कौन है ये?
यकीनन, ये मैं तो नहीं,
गर्मियों की सांझ में
पन्छियों के साथ,
फैला के पंखों को
घूमती है आसमां में
यहाँ से वहाँ
यूँ ही
अलमस्त।
यकीनन, ये मैं तो नहीं
मैं तो,
रिवाजों से बंधी
मर्यादित अर्धांगिनी,
लहर बरसात पन्छी,
को मैं नहीं पहचानती,
रेत छत और आसमां को
मैं तो नहीं जानती,
फिर कौन है ये?
मुझमें जो बसती है
और
मुझको ही छलती है।।
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