Thursday 9 March 2017

महिला दिवस का मतलब, Meaning of Women's day



‘‘महिला दिवस तो मनाना है ना, ऐसे जाओगी क्या? चमकौआ साड़ी पहनो और श्रृंगार-पटार भी कर लो.. तब चलो। आखिर हम महिलाओं का उत्सव है। बनसंवरकर जाना तो बनता है।’’

                                                                                                         -कुलीना कुमारी, 2017




रंजना अर्पणा को पहले ही सूचित कर चुकी थी कि महिला दिवस पर होने वाले उत्सव के लिए बुलावा आया है, तैयार रहना..हमदोनों सहेलियां चलेंगी। मगर यह क्या, जब रंजना आयी तो देखा कि अर्पणा अपने पूराने वेष-भूषा के साथ अब तक पड़ी है। यह देख वह बरस पड़ी, ‘‘महिला दिवस तो मनाना है ना, ऐसे जाओगी क्या? चमकौआ साड़ी पहनो और श्रृंगार-पटार भी कर लो.. तब चलो। आखिर हम महिलाओं का उत्सव है। बनसंवरकर जाना तो बनता है।’’

‘‘मगर मैं किसके लिए संबरूं? जिससे प्यार करती थी, वह तो छोड़कर चला गया। अब काहे का रंग और प्रयोजन भी क्या?’’अर्पणा उदास मन से बोली और यह कहते हुए रंजना के लिए चाय-पानी लाने चली गयी।
इधर रंजना सोच रही थी, ‘‘सचमुच अर्पणा ने इतना झेला है कि उसे भूलकर फिर से नये रंग में जीना आसान तो नहीं मगर कोशिश तो करनी पड़ेगी। दरअसल अर्पणा कुछ महीने से अकेले अपनी बेटी के साथ रह रहीं थी। वह अपने पति को टूटकर चाहती थी मगर उसने अर्पणा से शादी करने के बाद भी चोरी-चोरी किसी और से शादी कर लिया था। जब कुछ महीने पहले बिना किसी सूचना के उसका पति गायब हो गया तो विभिन्न स्रोतों से उसने पति की खोज करवायी और पता चला कि पति छलिया निकला। वह अर्पणा को छोड़ दूसरी बीवी के साथ रहने लगा था। तब से अर्पणा खुद को ऐसे बना लिया जैसे उसका पति मर गया हो और विधवा जैसे वस्त्र धारण करने के साथ-साथ वैसे ही वह रहने भी लगी थी। चूंकि अर्पणा मां-बाप को बिना विश्वास में लिए प्रेम विवाह किया था तो उनलोगों से भी मदद नहीं मांग पा रही थी। जैसे-तैसे कुछ जमा-पूंजी व दोस्तों की बदौलत उसका घर चल रहा था। रंजना से उसकी तब दोस्ती हुई जब वह गांव छोड़कर शहर में पति मोहन के साथ नया-नया आशियाना सजा रही थी। उसका पति तो छोड़ गया मगर इनदोनों की दोस्ती कम नहीं हुई बल्कि अर्पणा को मुश्किल परिस्थिति में देख उसके साथ और मजबूती के संग वह खड़ी हो गयी। अर्पणा के इस मुश्किल समय में रंजना उसके करीबियों में से एक थी। इसलिए अर्पणा उसकी सुनती भी थी।

जब वह चाय-पानी लेकर आयी तो रंजना पुनः पुराने प्रसंग को छेड़ दी और बोली, ‘‘ तुम क्या कह रही थी ‘‘मैं किसके लिए संबरूं? जिससे प्यार करती थी, वह तो छोड़कर चला गया। अब काहे का रंग और प्रयोजन भी क्या?’’ तो सुनो...‘‘है प्रयोजन सखी! महिला दिवस अपने आप में बड़ा प्रयोजन है। महिला दिवस का मतलब ही है, उपलब्धियों का जश्न मगर जहां कमी, उसे दूर करने का संकल्प व उस हेतु नया प्रयास। इसलिए यह हर बरस आता है ताकि हम महिला अपने दिवस मनाने के साथ-साथ नव ऊर्जा से परिपूर्ण हो सके।’’ मगर रंजना को लगा कि इतना बताना काफी नहीं, जरा और खोलकर इसे बताऊं तो वह पुनः सांस ले बोल उठी, ‘‘सच कहूं तो जीवन बहुत सुंदर सखी अगर सुखी जीवन अपना लक्ष्य रखो। ये उजली साड़ी व विधवा जैसा जीवन जीना अब छोड़ दो। ये तुम्हें दीनहीन वाली छवि देती है। निकलो बंद कमरे से। आने दो खुली हवा। किसी एक के जाने से जीवन खत्म नहीं हो जाता। मैं तो कहती हूं, उतार फेंको चरित्र का गट्ठर, धोखेबाज पति का नाम लेना.. फिर सब अच्छा-अच्छा लगने लगेगा।’’
रंजना इतना सब जानबूझकर बोली ताकि वह अपने पति द्वारा किए धेाखेबाजी के गम से उबर पाए। दूसरे लोग कब तक सहारा देते। उसकी एक बेटी भी थी, उसका भी ध्यान व खर्चा पानी की जिम्मेदारी उसी के सर आ गया था। इसलिए भी रंजना उसे प्रोत्साहित कर अकेले जीने के लिए तैयार कर रही थी।

जैसा कि रंजना को उम्मीद थी, इतनी खुली बात सुनने के बाद वह चुप नहीं रह सकती और सच में प्रत्युत्तर स्वरूप अर्पणा बोली, ‘‘ मैं अंदर से बहुत टूट गयी हूं। लगता है जैसे पास-पड़ोसी, समाज व हर कोई ही मुझपर हंस रहा है कि कितनी बेवकूफ व खराब जो पति छोड़ गया। मैं निकलना चाहती हूं इससे बाहर मगर नहीं निकल पाती। क्या करूं?’’

रंजना को इस बात का एहसास था कि ऐसे धोखे से उबरना आसान नहीं होता मगर असंभव तो नहीं । चूंकि आज महिला दिवस का बहाना था और उसने जैसे ठान लिया था कि अपनी प्रिये सहेली को तो महिला दिवस का मतलब बताकर रहूंगी और इसी के साथ उसे थोड़ा मजबूत बना दूंगी चाहे उसके लिए मुझे कितनी भी कोशिश करनी पड़े।

रंजना ने अर्पणा की ऐसी बात सुनी तो मन उसका भी बहुत दुखा, उसके पति पर गुस्सा भी बहुत आया मगर उन बातों को दोहराने से फायदा नहीं था तो जवाब में प्यार से अर्पणा का हाथ पकड़कर बोली, ‘‘जरा सोचो भी। कब तक बचत के पैसे से या मांगचांगकर घर चलाओगी? अब तुम्हें ही कमाना होगा। मत करो मोह पुरुष जात से और न उससे डरो ही। जैसे उसने तेरा इस्तेमाल किया, तुम्हें भी कहीं जरूरत लगे तो इस्तेमाल करो और फिर भूला दो। अगर सती-सावित्री बनने से फायदा नहीं तो उतार दो यह रूप। बोल्ड बनो और अपने लिए जीना सीखो।’’
रंजना के ऐसे शब्दों पर जैसे अर्पणा चौंककर बोली, ‘‘ क्या कह रही हो? यह इतना आसान है क्या! अगर ऐसी परिस्थिति तुम्हारे साथ होती तो जी पाती क्या बोल्ड बनकर?’’
‘‘बिल्कुल हां! और मैं जी भी रही हूं। मेरे पति तुम्हें अच्छे दिखते हैं मगर मेरे लिए सच में ऐसा नहीं। वह मेरे लिए हिटलर से कम नहीं । उनके सामने मैं जोर से सांस भी लूं तो उनको खटक जाता है। इसीलिए उनके सामने मैं जी हां, जी हां करती हूं मगर उनके पीठ पीछे वो सबकुछ करती हूं जिसको मेरा मन चाहता है। अपने मन का खाना, पहनना और जो अच्छा व मजबूत लगे, उसका साथ लेना भी। कुछ भी।’’

‘‘ क्या कह रही हो, तुम पति के पीठ पीछे यह सब करती होे। यह तो धोखा है।’’

‘‘ अगर यह धोखा है तो पत्नी को डराकर रखना, अपने इशारों पे चलाना क्या वफादारी है...नहीं ना! तो एक जबरदस्ती-धोखा पति बनाम पुरुष के तरफ से तो एक झूठ-मनमर्जी हम महिला के तरफ से भी। सुनो! जीवन एक ही मिला है, इसे रो-धोकर बर्बाद करना मूर्खता। तभी पति व समाज के सामने मैं पतिव्रता मगर वैसे अपने सुख के लिए अग्रसर..मनमौजी और इसलिए मैं प्रसन्न रहती हूं हमेशा।
तुम भी जब जिसमें फायदा, वैसा करो और यहीं असली मतलब महिला दिवस का भी कि महिला अपने लिए जीना सीखें और खुश रहें।

‘‘ ओह सच में तुम ऐसी हो, आज मुझे पता चला। पहले तो तुम अपने बारे में ऐसा कुछ नहीं बोली थी और महिला दिवस का भी ऐसा मतलब-- इससे पहले कोई मुझे समझाया भी नहीं था।’’ अर्पणा रंजना से ऐसी राजदार बातें सुनकर पहली बार मुस्कुराते हुए बोली।

‘‘ हां मेरी रानी, इससे पहले महिला दिवस के साथ तुम्हारा उदास चेहरा दिखा भी नहीं था तो कैसे बताती? चलो, अब मतलब समझ गयी तो सुंदर बनकर चलोगी ना महिला दिवस के महिला उत्सव में या मैं अकेली जाऊं?’’

‘‘ नहीं! मैं चलूंगी तुम्हारे साथ सुंदर बनकर। जरा ठहरो।’’

इसी के साथ रंजना ने देखा कि अपनी सारी सफेद साड़िया उसने एक बैग में डाल दिया और पेटी से एक रंगीन साड़ी निकालकर वह तैयार होने लगी, अपने संपूर्ण रूप-गुण व जोश के साथ महिला उत्सव में जाने के लिए। महिला दिवस के साथ ही उसका धोखेबाज पति पुराण खत्म हो गया और पुनः वह जीवन को आनंदमय तरीके से जीने में लग गयी।



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