महिला अधिकार अभियान, नवम्बर 2016, पृष्ठः 9 से
उसे कुछ भी नाम दे दिया जाय, ऐसा बचपन हम सभी देखते हैं-किसी होटल में छोटू के नाम से या हमारे घर के बाहर फेकें गए कूड़े में पानी की बोतल कबाड़ को खोजते हुए या हमारे ही घर में साफ सफाई करते हुए बर्तन धोते हुए। ऐसे कितने ही बचपन दम तोड़ देते हैं। हम बाल दिवस मानते हैं, विद्यालयो में , संस्थाओ में, मॉल में पर क्या कोई दिन इनका भी होता है!जहाँ मैं रहती हूँ, कुछ दिन पहले एक परिवार किसी दूसरे शहर से शिफ्ट हुआ। वैसे तो आपको पता होगा की महानगरों में आस-पड़ोस के रिश्ते ना के बराबर होते हैं। वैसे मैं एक लेखिका हूँ, न चाहते हुए भी एक सूक्ष्म दृष्टि रखने की मेरे गहरी आदत है। आदतन मैं ने भी देख ही लिया। इस परिवार में एक मोहतरमा है, उनके पति और एक छोटी सी बेटी। हाँ बेटी की उम्र होगी दो साल की पर गौर करने वाली बात यह है कि उन्होंने घर के कार्याें के लिए और बेटी को सम्भालने के लिए एक लड़की भी रखी है उसकी उम्र यही कोई दस साल की होगी.....फिर एक टूटता बचपन।
एक दिन पार्क में टहलते हुए मैं ने सुना, वहीं मैडम कह रही थी और इशारा उस दस साल की लड़की की तरफ ही था कि इसे भी मैं अपनी बेटी के जैसी ही मानती हूँ और खाने पीने की कोई कमी नहीं होने देती हूँ। मेरे कदम खुद ब खुद रुक गए और मन तो हुआ आज पूछ ही लूं, क्या खोया हुआ बचपन दे सकती है पर ......नही पूछ पाई।
![]() |
महिला अधिकार अभियान, नवम्बर 2016, पृष्ठः 9 |
ऐसे ही कुछ दिन और बीत गए। एक दिन की बात है। मैं खिड़की में खड़ी बाहर पार्क में खेल रहे बच्चों को देख रही थी। अचानक मुझे वह दिखाई दी। साथ में मैडम की बेटी बच्चों वाली गाड़ी में बैठी थी। अचानक हवा में उड़ने वाला एक गुब्बारा कहीं से आया और उसको छूता हुआ सा निकल गया। उसने भी उसे पकड़ने की कोशिश की और वह दौड़ पडी। वह भूल गई कि उसे हक नहीं है खेलने का, कूदने का जिंदगी जीने का ....उसने बेटी को वहीं गाड़ी में छोड़ दिया और उसे पहली बार मुस्कराते हुए देख रही थी। वो गुब्बारे की डोर पकड़ नहीं पा रही थी। यकीन मानिए वो डोर मुझे उसकी गुम हुई ख्वाहिश, उड़ाता हुआ बचपन और रंग-बिरंगी शैतानियाँ लग रही थी जो उसकी पहुंच के बाहर थी। गुब्बारा दूर आसमां में चला गया और वह उदास मन से लौट आई जैसे सपने से जाग उठी। मैडम उसे वहाँ मिल ही गई और मैडम ने खूब डांटा और ऊपर अपने घर ले गयी .....क्या-क्या उस मासूम को कहा होगा लिखने की जरूरत नहीं। हाँ वह लड़की भी कभी देखती थी मुझे।
कुछ दिन बीते ....एक दिन किसी से सुना मैंने कि उसकी मां आई थी, अपने साथ ले गई। अब प्रश्न यह है कि क्या उसकी माँ उसे अपने घर में ही रखेगी ....जी नहीं कुछ नही बदला उसके लिए, दूसरा घर देखा जायेगा और हो सकता है इससे भी ज्यादा क्रूर लोगों से उसका अब सामना हो। उसकी माँ की जो भी मजबूरी रही हो, मैं इस समाज के पढ़े-लिखे और सभ्य कहलाने वाले लोगो से कहना चाहती हूँ कि कृपया ऐसे किसी भी बचपन को कैद में ना रखें, आप कानूनी रूप से तो गलत कर रहे हैं। अपनी इंसानियत का भी कत्ल कर रहे हैं। उस लड़की की कहानी तो यहीं खत्म हो जाती है पर येे प्रश्न अभी भी समाज से खत्म नहीं हुए हैं।
रचनाकार -डॉ. विनीता मेहता
No comments:
Post a Comment