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गुरु-गोंविंद दोउ खड़े, काको लागू पाएं। बलिहारी गुरु आपनी, गोविन्द दियो बताय।। कबीर के इस कथन में गुरु को देव तुल्य समझने वाला यह शिष्य आज सुविधाओं के मोह में फंसकर अपनी विवेक - बुद्धि खो गुरु की गरिमा को भुल चूका है। विद्यार्थियों द्वारा कागज फेंक कर मारना, भद्दे कमेंट्स पास करना, अपना बीमा करवा लेना, बाहर देख लेंगे, फेल करके दिखा आदि आम घटनाएं नियति बन चुकी है। इन मासूमों में अपराध की प्रवृत्ति को पहचानना बहुत मुश्किल है, विश्वास में घात की तरह, संवाद में विवाद की तरह। फिल्मों की हिंसक शैली जैसे कि हाल ही में एक फिल्म आयी मिर्ज्या जिसमें एक 12 साल का विद्यार्थी अपने शिक्षक की गोली मारकर हत्या कर देता है तो उसके तुरंत बाद गीत बजता है-होता है, होता है ......कोई अफ़सोस नहीं, कोई अपराधबोध नहीं तथा ऐसे ही अनेकों वीडियो गेम हैं जो पूर्णरूप से हिंसा से भरे हुए हैं जो बच्चों में अपना नकारात्मक प्रभाव छोड़ते हैं। गुरु भी जहाँ विद्यार्थियों को इन विकृतियों से निकालने के बजाये खुद इस गेम का हिस्सा बनता दिखाई देता है। उनकी भाषा और व्यवहार में कटुता व अनुदार की प्रवृत्ति घर कर चुकी है।
ऐसे में 15 अक्टूबर 2016 को मेगा पी टी एम होने जा रही है। जिसमें अभिभावक का किरदार रेफरी की भूमिका में होगा। अभिभावक और अध्यापक का यह संवाद छात्र-छात्राओं के हित में अतिआवश्यक हो चला था। इसके अभाव के कारण ही विद्यार्थियों में भटकाव की स्थिति आयी है। अभिभावक ही गुरु की अहमियत समझते हुए दोनों के बीच की मजबूत कड़ी साबित हो सकते हैं। यहाँ दोनों ओर से स्वस्थ वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। संत दुर्बल नाथ का कथन कितना सटीक है- ऊपर पानी न चढ़े, निचे ही ठहराय। निचा हो जो भर पिए, ऊंचा प्यासा जाय।। यही शिक्षा ग्रहण करने की विधि होनी चाहिए। गुरु एक ज्ञान का झरना है जिसे याचक बनकर ही ग्रहण किया जा सकता है। ऊपर रह कर एक बून्द भी हाथ न लगेगी। इसमें यदि अध्यापक की डाँट-दपक भी रहती है तो वह कुम्हार की चोट जैसी आकार देने की होती है न कि तोड़ने की। कुछ अभिभावक इसे नकारात्मक भाव से देखते हैं। यह ठीक नहीं।
अभी हाल ही में सुल्तान पूरी रोड पर स्थित नांगलोई के सरकारी स्कूल की घटना जिसमें दो विद्यार्थियों ने एक अध्यापक मुकेश कुमार की स्कूल के ही कमरे में दिन दहाड़े चाकू मारकर हत्या कर दी। इससे पहले भी जमना पार के सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों ने टीचर को सड़क पर लोहे की छड़, हाकी और चाकू से जान लेवा हमला कर उन्हें मौत के करीब पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस तरह की अनेकों घटनाएं अध्यापक-विद्यार्थी की दूरी व विद्यार्थियों की असहिष्णुता का द्योतक है, जिस पर गौर करने की जरूरत है।
कुछ साल पहले बुलबुल खाना, तुर्कमान गेट स्कूल की एक छात्रा ने अपनी टीचर को झूठे आरोप में ये कहकर फंसवा दिया था के वो उससे मजबूरन वेश्यावृति करवाती हैं। बिना जाँच- पड़ताल के ही उस टीचर को पब्लिक ने पीट- पीट कोमा में पहुंचवा दिया था। मंगोल पूरी स्कूल की एक छात्रा के भाग जाने का आरोप लगाकर वहां की प्रधानाचर्या को उसके घर वालों द्वारा बेरहमी से पीटा जाना भी अमानवीयता का उदाहरण है। क्यों हम आम तौर पर सच जाने बिना ही ऐसे कदम उठाने को आतुर रहते हैं। यहाँ अभिभावक का संयम भी डोलता जान पड़ता है।
क्या इस तरह की नोबत आने देना अध्यापक व अभिभावक की ही कमज़ोरी को उजागर करता है या वे बच्चों को ठीक से हेंडिल नहीं कर पा रहे हैं? अध्यापक मुकेश शर्मा की हत्या के बाद असुरक्षित अध्यापकों ने 27 सितंबर 2016 को सूरजमल स्टेडियम के मेट्रो स्टेशन पर अपना रोष प्रकट करने के लिए रोड़ जाम किया। इसके कारणों में वे प्रशासनिक व्यवस्थाओं को कमजोर व अव्यवहारिक मानते है तथा यह सही है कि राइट टू एजुकेशन के तहत 14 साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करने का अटूट अधिकार है लेकिन इसकी मारक क्षमता को कक्षा पहली से आठवीं तक फेल न करने की नीति इसको कमजोर करने के लिए जिम्मेदार है। इससे विद्यार्थी यह सोच कर बिलकुल भी नहीं पढ़ना चाहते क्योंकि पास तो वे हो ही जाएंगे। इस कारण उनका पढाई से जुड़ाव नहीं हो पाता। कुछ बच्चे तो परीक्षा - पत्र पर यह तक लिख देते हैं कि हिम्मत है तो फेल करके दिखा। इस आंतरिकता से विद्यार्थी कई बार खाली पेपर छोड़कर चले जाते हैं। अध्यापक द्वारा साल भर की करी- कराई मेहनत पर पानी फेर देते हैं। जो विद्यार्थी थोड़ा बहुत रूचि दिखाते हैं वे भी धीरे- धीरे नकारात्मक प्रभाव में आने लगते हैं। इसी तरह नवी कक्षा तक पहुँचते - पहुँचते वे शिक्षा से दूर हो चुके होते हैं और अब उन्हें नक़ल की जरुरत पड़ने लगती है। नक़ल नहीं होने देने पर धमकी देना शुरू कर देते है। यही माहौल स्कूलों का आम हो चला है।
साथ ही रही सही कसर मिड डे मील बांटना, स्वास्थवर्धक दवाइयां बांटना, बैंक अकाउंट खुलवाना, आधारकार्ड बनवाना, पहचान- पत्र बनवाना, स्कॉलरशिप बांटना, फ़ीस जमा करना इत्यादि अनेकों ऐसे काम हैं जो अध्यापक को उलझाये रखते हैं। जिसके कारण विद्यार्थियों पर पढाई का दबाव व सही जांच करना कम हो जाता है। इन बाधाओं से विद्यार्थियों की गुणवत्ता में कमी आती चली जाती है और अनुशासनहीनता को बढ़ावा मिलता है। ऐसा होने से बच्चे अभिभावक व अध्यापक दोनों के हाथ से निकल जाते हैं और स्कूल से बाहर आपराधिक गतिविधियों का हिस्सा होने लगते हैं। वे घर से तो निकलते हैं लेकिन स्कूल तक नहीं पहुँचते। यही संवेदनहीनता सामाजिक परिवेश में घातक साबित होती है। जब विद्यार्थी आगे चलकर नागरिक बनते हैं तो कर्तव्यहीनता इन पर हावी रहती है और तब यही मानसिकता पुरे समाज व देश को खोखला कर डालने के लिए काफी है।
नोबल पुरस्कार से सम्मानित, अर्थशास्त्री व भारत रत्न अमर्त्य सेन ने भी प्राथमिक शिक्षा पर हमेशा से ही विशेष ध्यान देने पर प्रमुखता से ज़ोर दिया है। लेकिन इस बात को समझने में प्रशासन ने सकारात्मक कदम उठाएं, हों यह विचारणीय है। वहीं मशहूर वैज्ञानिक, भारत रत्न, भारत के राष्ट्रपति माननीय डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम ने स्कूलों में कला शिक्षा पर ज़ोर देने की बात को प्राथमिकता देते हुए कहा है कि कला जैसे विषय विद्यार्थियों को रचनात्मक व संवेदनशील बनाते हैं। जिसके जरिये इनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व दोनों को निखारा व संवारा जा सकता है। अभी हाल ही में नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जो बचपन बचाओ अभियान के तहत बच्चों की शिक्षा के मौलिक अधिकार के पक्ष में अपना सर्वस्व योगदान देकर उन कामगार बच्चों को शिक्षा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए अनेकों कठिनाईयों से जूझते हुए हज़ारों - लाखों बच्चों को शिक्षित करने का दायित्व निभाते रहे, वही सरकारें शिक्षा के फोकस से दूर रही। यदि आज हमारे बच्चे भटकाव की स्थिति में आ रहे हैं तो उसके पीछे शिक्षा के प्रति लचर व्यवस्था जिम्मेदार कही जानी चाहिए। जिसके कारण शिक्षा आज मात्र पास होने की रिपोर्ट कार्ड बनकर रह गयी है। चाहे बाहरवीं के विद्यार्थी को एजुकेशन की स्पेलिंग तक न आती हो, चाहे वे शिक्षा का उद्देश्य भी न जानते हों, चाहे वे अपने कर्तव्यों के प्रति सजग न हों लेकिन साक्षरता के आंकड़े पुरे हैं। क्या यही शिक्षा के मायने रह गए हैं? इन सबके चलते टीचर पर 100 % रिजल्ट का दबाव भी निरंतर बना रहता है। इसी कारण टीचर्स को बोर्ड की परीक्षा में नक़ल की पर्चियां बांटते हुए भी पाया जा सकता है।
महिला अधिकार अभियान’ के अक्टूबर 2016 अंक में प्रकाशित |
महिला अधिकार अभियान’ के अक्टूबर 2016 अंक में प्रकाशित |
इस स्थिति को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि हमारे देश के नव- नागरिक किस श्रेणी के तैयार हो रहे हैं। जो अपने देश व समाज के हितों को सोचते भी होंगे? यही कारण है कि हमें आज स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ तथा नदियों की साफ- सफाई पर अभियान चलने की आवश्यकता महसूस हो रही है। लेकिन पहली बार दिल्ली सरकार की ओर से शिक्षा पर, संजीदगी से फोकस हो रहा है। चुनौती योजना के तहत विद्यार्थियों की छंटाई की जा रही है। जो विद्यार्थी पढ़ने - लिखने में आगे है उनको प्रतिभा ग्रुप में, जो सामान्य हैं उनको निष्ठां ग्रुप में तथा जो बिलकुल ही पढाई में पिछड़े हुए हैं। उनको विश्वास ग्रुप में रखा गया है।
यह शुरुआत एक-एक विद्यार्थी को शिक्षित करने की ओर बढ़ाया हुआ सही व ठोस कदम साबित होगा। दिल्ली के शिक्षा मंत्री के इस कथन से सहमत होने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए कि विद्यार्थी इस तरह की आपराधिक प्रवृत्ति तक कैसे पहुँच रहे हैं। वाक़ई ये प्रश्न झकझोरने के लिए बहुत है। अध्यापकों को विद्यार्थियों के हितों से जुड़कर देखना होगा। एडिशन को जब अध्यापक ने यह कहकर स्कूल से निकालने को कहा कि यह इस स्कूल में पढने लायक नहीं है। तो एडिशन की माँ ने उस अध्यापक को यह कहकर एडिशन को स्कूल से ले गयी कि यह स्कूल ही इसके लायक नहीं है। यही हित साधने होंगे बच्चों के लिए हमें। इसके विपरीत एक्लव्य जैसे शिष्य जिनके मन में गुरु के प्रति इतनी आस्था कि अपना अंगूठा तक दक्षिणा में काट कर देने में भी वह नहीं सोचता, वही तो उसकी सारी कमाई गई पूंजी है। यह गुरु द्वारा किया गया शिष्य के प्रति पहला छल था। क्योंकि शिक्षा पर सदियों से जातिगत वर्ण-व्यवस्था के चलते किसी खास वर्ग विशेष का वर्चस्व रहा है। इसके तहत दलित व आदिवासी जातियों को शिक्षा से वंचित रखा गया। वहीं एक अध्यापक ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर को अपना सरनेम ‘अम्बेडकर’ लगाने को कहा। ताकि वह जातिगत भेदभाव से बच सके। यह सोच विद्यार्थी के मन में, शिक्षक के प्रति विश्वास उत्पन करती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि शिक्षा प्रोत्साहन और आदर के बीच की धुरी है। जिसे परिवार, सरकार और अध्यापकों को पोसना होगा।
Written by Hiralal Rajasthani
-महिला अधिकार अभियान’ के अक्टूबर 2016 अंक में प्रकाशित
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