अनुराधा कनोजिया, स्वतंत्र रचनाकार |
रावण
भीतर का रावण
जो बहुत डरपोक हैं।
डरता हैं खुद से
तेरे मेरे मन को बात
करने नहीं देता !!
बात करने नहीं देता,
खुद से खुद की,
जो अंजान है, मेरे अस्तित्व से
जो चुभता हैं फास की तरह
जो घाव बना रहा है
भीतर ही भीतर !!
महिला अधिकार अभियान’ के अक्टूबर 2016 अंक में प्रकाशित |
जो रिस रहा हैं, मन की आँखों से,
जो बहने नहीं देता मेरी आँखों से,
हैं ! है एक रावण !
मन के भीतर !!
पर रावण सा बहादुर नहीं हैं।
साहस नहीं हैं ,कुछ कहने का,
साहस नहीं हैं, सच को बोलने का,
जो जानता है पर पहचानता नहीं हैं।
हा ! है एक रावण, मन के भीतर,
तेरे मन में, मेरे भी मन में !!
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